Sunday 8 October 2017

Meridians and how to read them

Meridian (geography)

A (geographical) meridian (or line of longitude) is the half of an imaginary great circle on the Earth's surface, terminated by the North Pole and the South Pole, connecting points of equal longitude. The position of a point along the meridian is given by its latitude indicating how many degrees north or south of the Equator the point is. Each meridian is perpendicular to all circles of latitude. Each is also the same length, being half of a great circle on the Earth's surface and therefore measuring 20,003.93 km (12,429.9 miles).

Etymology

The term "meridian" comes from the Latin meridies, meaning "midday"; the sun crosses a given meridian midway between the times of sunrise and sunset on that meridian. The same Latin stem gives rise to the terms a.m. (ante meridiem) and p.m. (post meridiem) used to disambiguate hours of the day when utilizing the 12-hour clock.

Geographic


The astronomic prime meridian at Greenwich, England. The geodetic prime meridian is actually 102.478 meters east of this point since the adoption of WGS84.
The meridian through Greenwich (inside Greenwich Park), England, called the Prime Meridian, was set at zero degrees of longitude, while other meridians were defined by the angle at the center of the earth between where it and the prime meridian cross the equator. As there are 360 degrees in a circle, the meridian on the opposite side of the earth from Greenwich, the antimeridian, forms the other half of a circle with the one through Greenwich, and is at 180° longitude near the International Date Line (with land mass and island deviations for boundary reasons). The meridians from West of Greenwich (0°) to the antimeridian (180°) define the Western Hemisphere and the meridians from East of Greenwich (0°) to the antimeridian (180°) define the Eastern Hemisphere. Most maps show the lines of longitude.
The position of the prime meridian has changed a few times throughout history, mainly due to the transit observatory being built next door to the previous one (to maintain the service to shipping). Such changes had no significant practical effect. Historically, the average error in the determination of longitude was much larger than the change in position. The adoption of WGS84 ("World Geodetic System 84") as the positioning system has moved the geodetic prime meridian 102.478 metres east of its last astronomic position (measured at Greenwich). The position of the current geodetic prime meridian is not identified at all by any kind of sign or marking (as the older astronomic position was) in Greenwich, but can be located using a GPS receiver.

Magnetic

The magnetic meridian is an equivalent imaginary line connecting the magnetic south and north poles and can be taken as the horizontal component of magnetic force lines along the surface of the earth. Therefore, a compass needle will be parallel to the magnetic meridian. The angle between the magnetic and the true meridian is the magnetic declination, which is relevant for navigating with a compass.

Tuesday 29 August 2017

Legend of Saints of India series part 6 - Chaitanya Mahaprabhu

चैतन्य महाप्रभु का जन्म संवत् १५४२ विक्रमी की फाल्गुनी पूर्णिमा, होली के दिन बंगाल के नवद्वीप नगर में हुआ था । उनके पिता का नाम पंडित जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शचीदेवी था।

पिता सिलहट के रहनेवाले थे। नवद्वीप में पढ़ने के लिए आये थे। बाद में वहीं बस गये। वहीं पर शचीदेवी से विवाह हुआ।

एक के बाद एक करके उनके आठ कन्याएं पैदा हुईं और मरती गईं। फिर एक लड़का पैदा हुआ। भगवान की दया से वह बड़ा होने लगा। उसका नाम उन्होंने विश्वरूप रखा। विश्व रूप जब दस बरस का हुआ तब उसके एक भाई और हुआ।

माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। बुढ़ापे में एक और बालक को पाकर वे फूले नहीं समाये। कहते हैं, यह बालक तेरह महीने माता के पेट में रहा। उसकी कुंडली बनाते ही ज्योतिषी ने कह दिया था कि वह महापुरूष होगा। यही बालक आगे चलकर चैतन्य महाप्रभु हुआ।

बालक का नाम विश्वंभर रखा गया। प्यार से माता-पिता उसे 'निभाई' कहते। जिनके घर बच्चे मर जाते हैं, वे इसी तरह के बेसिर-पैर के नाम अपने बच्चों के रख देते हैं।

एक दिन की बात है। बालक के स्वभाव की जांच करने के लिए पिता ने उसके सामने खिलौने, रुपये और भगवतगीता रख दी। बोले, "बेटा, इनमें से कोई-सी एक चीज़ उठा लो।" बालक ने भगवतगीता उठा ली। पिता समझ गये कि आगे चलकर यह बालक भगवन का बड़ा भक्त होगा।

एक बार निमाई काले नाग से खेलते हुए पाये गए। उनके चारों ओर सांप-कुंडली मार कर बैठा हुआ था ओर वह बड़े प्यार से उसके शरीर पर हाथ फेर रहे थे। लोगों को पक्का विश्वास हो गया कि हो-न-हो, इस बालक के शरीर में कोई महान आत्मा रहती है।

बचपन में निमाई का पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। शैतान लड़कों के वह नेता थे। उन दिनों देश में छूआछूत ओर ऊंच-नीच का भेदबहुत था। वैष्णव और ब्राह्मण अपने या अपने घरवाले के ही हाथ का पका हुआ खाना खाते थे।

एक दिन एक ब्राह्मण निमाई के यहां आया। जगन्नाथ मिश्र ने उसकी बड़ी आवभगत की। शचीदेवी ने उन्हें सीदा दिया।

ब्राह्मण ने चौका लीप-पोत कर तैयार किया और खाना बनाया। खाने से पहले वह आंखें बन्द करके विष्णु भगवान को भोग लगाने लगा। तभी निमाई ने आकर उसकी थाली में से खाना खाना शुरू कर दिया। यह देखकर ब्राह्मण चिल्लाने लगा।

उनकी आवाज सुनते ही मिश्रजी और शचीदेवी दौड़े आये। मिश्रजी ने निमाई को पकड़ लिया और उन्हें पीटना ही चाहते थे कि ब्राह्मण ने छुड़ा दिया।

मिश्रजी और शचीदेवी के आग्रह पर ब्राह्मण ने दूसरी बार भोजन तैयार किया। निमाई को अलग जाकर रस्सी से बांध दिया, पर भगवान को भोग लगाते समय फिर वही घटना घटी। निमाई रस्सी खोलकर आ गये। और थाली में से चावल खाने लगे। अब की बार मिश्रजी के गुस्से का ठिकाना न रहा। वह मारने को लपके, पर ब्राह्मण ने उन्हें रोक दिया। उसी समय पाठशाला से पढ़कर विश्वरूप आ गये। सबने मिलकर ब्राह्मण से फिर खाना बनाने का आग्रह किया।

ब्राह्मण मान गया। विश्वरूप और माता ने निमाई के रस्सी से बांधकर अपने पास बिठा लिया। कहते हैं, जब ब्राह्मण ने भोजन बनाकर भगवान विष्णु को भोग लगाया तो भगवान चतुर्भुज रूप में उसके सामने आ खड़े हुए और बोले, "तुम्हारे बुलाने पर मैं बालक के रूप में दो बार तुम्हारे पास आया, पर तुम पहचान नहीं पाये। अब जो इच्छा हो, मांगो।" ब्राह्मण गदगद् हो गया। बस, मुझे यही वर दीजिए कि आपकी मूर्ति सदा मेरे हृदय में बसी रहे।"

विष्णु भगवान ने कहा, "ऐसा ही होगा।" ब्राह्मण ने बड़ी खुशी से भोजन किया। फिर वह निमाई को देखने गया। वह सो रहे थे। ब्राह्मण ने मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया और अपने घर लौट गया।

जिसके घर से जो कुछ मिलता, निमाई वही खा लेते। पड़ोसिन प्यार से उन्हें खिलातीं। कोई-कोई कहतीं, "निमाई ब्राह्मण होकर हर किसी का छुआ खा लेता है।" निमाई हंसकर कहते, "हम तो बालगोपाल हैं। हमारे लिए ऊंच-नीच क्या! तू खिला, हम तेरा खा लेंगे।"

निमाई जितने शरारती थे, बड़े भाई उतने ही गम्भीर और अपने विचारों की दुनिया में मस्त रहने वाले आदमी थे।

विश्वरूप की उम्र इस समय १६-१७ साल की थी। माता-पिता विश्वरूप के विवाह की बात सोचने लगे, किन्तु उनकी लगन दूसरी ही ओर थी। मां-बाप ने जोर दिया तो मौका पाकर एक दिन वह रात को घर से निकल गये और संन्यासों हो गये। बहुत ढूंढ़ने पर भी उनका पता न चला। मिश्रजी और शचोदेवी के दु:ख की सीमा न रही। निमाई पर भी इस घटना क बहुत असर पड़ा। वह भी अब गम्भीर रहने लगे।

निमाई का मन अब पढ़ने की ओर झुका, पर मिश्रजी को उसमें रस न था। वह सोचते थे कि एक लड़का तो खो ही गया, कहीं दूसरा भी हाथ से न चला जाय। वह निमाई को पढ़ते देखते तो बहुत नाराज होते। पर निमाई जब पढ़ने पर ही तुल थे, तो उन्हें कौन रोक सकता था! वह पिता से छिपकर पढ़ते।

इस समय उनकी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने बहुत-कुछ पढ़ डाला। पिता अपने पुत्र की चतुराई की बातें सुन-सुनकर बहुत खुश होते। पर भाग्य के आगे किसका बस चलता है! एक दिन अचानक मिश्रजी को जोर का बुखार चढ़ा और कुछ ही दिनों में वह चल बसे।

घर पर दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा। पर निमाई ने हिम्मत से काम लिया। अपने-आपको तो सम्भाला ही, मां को भी को भी धीरज बंधाया। दुखी मां का अब निमाई ही सहारा थे। पढ़ने से जो समय बचता, उसमें वह माता की खूब सेवा करते।

व्याकरण के साथ-साथ अब वह और चीजें भी पढ़ने लगे। धीरे-धीरे उनके ज्ञान की चर्चा चारों ओर होने लगी। उनकी उम्र सोलह साल की हो चुकी थी। लोग उन्हें 'निमाई पंडित' कहने लगे।

निमाई के एक मित्र थे पं० रघुनाथ। वह उन दिनों एक पुस्तक लिख रहे थे। उनका विचार था कि इस पुस्तक को लिख लेने पर उस विषय का उनसे बड़ा विद्वान कोई नहीं होगा। तभी उन्हें पता लगा कि निमाई पंडित भी उसी विषय पर पुस्तक लिख रहे हैं। वह जानते थे कि निमाई इस विषय के पंडित हैं। वह उनके घर पहुंचे। रघुनाथ ने कहा, "सुना है, तुम न्याय पर कोई पुस्तक लिख रहे हो!" हंसते हुए निमाई ने कहा, "अजी, छोड़ो। तुम्हें किसी ने बहका दिया होगा। कहां मैं और कहां न्याय जैसा कठिन विषय! मन-बहलाव के लिए वैसे ही कुछ लिख रहा हूं।"

"फिर भी मैं उसे सुनना चाहता हूं।" रघुनाथ ने जोर देकर कहा।

"जैसी तुम्हारी इच्छा! चलो, गंगाजी पर नाव में सैर करेंगे और पुस्तक भी सुनायेंगे।"

दोनों गंगा-घाट पर पहुंचे और नाव में बैठकर घूमने लगे। निमाई ने अपनी पुस्तक पढ़नी शुरू की। सुनकर रघुनाथजी रोने लग गये।

"निमाई ने हैरानी से पूछा, "क्यों, क्या हुआ? रो क्यों रहे हो?"

"निमाई, मेरी बरसों की मेहनत बेकार गई। तुम्हारी इस पुस्तक के सामने मेरी पुस्तक पर कौन ध्यान देगा? अपनी जिस पुस्तक पर मुझे इतना गुमान था, वह तो इसके सामने कुछ भी नहीं है।" रघुनाथ ने ठंडी सांस भरते हुए कहा।

निमाई हंसने लगे। बोले, "बस इतनी-सी बात के लिए परेशान हो!" यह कहकर उन्होंने झट अपनी पुस्तक गंगाजी में फेंक दी। बोले, "यह तो एक पुस्तक है। मित्र के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं।"

उस दिन के बाद से फिर निमाई पाठशाला में पढ़ने नहीं गये। घर पर ही पिता और भाई की किताबों से पढ़ने लगे।

कुछ दिन बाद उन्होंने लड़कों को पढ़ाने के लिए एक पाठशाला खोली। धीरे-धीरे उसमें बहुत-से विद्यार्थी हो गये। उनमें कई तो उम्र में उनसे बड़े थे। निमाई अपने विद्यार्थियों को खूब मेहनत से पढ़ाते और मित्र की तरह उनसे प्रेमभाव रखते। माता के बहुत दबाव डालने पर उन्होंने पंडित बल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मीदेवी से विवाह कर लिया। लक्ष्मीदेवी को वह बचपन से ही जानते थे।

इन्ही दिनों नवद्वीप में एक पंडित आये। उन्हें अपने ज्ञान का बड़ा घमंड था, लेकिन निमाई के सामने उन्हें मुंह को खानी पड़ी। इससे निमाई का नाम और फैल गया। उनकी पाठशाला विद्यार्थियों से भरी रहती।

कुछ दिनों के लिए निमाई पूर्वी बंगाल की यात्रा पर गये। इसी बीच घर पर मामूली बुखार से लक्ष्मीदेवी की मृत्यु हो गई। बेचारी मां को उस समय धीरज बंधानेवाला कोई न था। लौटने पर निमाई को जब यह समाचार मिला तो वह  बहुत दुखी हुए।

इसी तरह एक-दो बरस निकल गए। निमाई विद्वानों और मात की सेवा करते अपनी पाठशाला में छात्रों को पढ़ाते।
अपनी मां का वह बहुत मान करते थे। माता की आज्ञा और आग्रह से उन्होंने पंडित सनातन मिश्र की कन्या विष्णुप्रिया से विवाह कर लिया। सूने घर में फिर चहल-पहल हो गई। विष्णुप्रिया के अच्छे स्वभाव के कारण धीरे-धीरे शचीदेवी और निमाई लक्ष्मीदेवी के विछोह का दु:ख भूल-सा गये।

गया जाकर बहुत-से लोग अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं। इस बार नवद्वीप से गया आनेवालों में निमाई भी थे। वह वहां जाकर अपने पिता का श्राद्ध करना चाहते थे। गया में इस समय बड़ी भीड़ थी। माने हुए सिद्ध-महात्मा वहां आये हुए थे। वहीं पर संन्यासी ईश्वरपुरी से निमाई की भेंट हुई। नवद्वीप में एक बार वह पहले भी मिल चुके थे। पर तब के और अब के निमाई में बड़ा अन्तर था। भेंट होते ही निमाई ने श्रद्धा से उनके चरण पकड़ लिये। संन्यासी ने उन्हें प्यार से आशीर्वाद दिया। निमाई बोले, "स्वामी! संसार की गति के साथ यह जीवन इसी तरह बीत जायगा। अब हमें भी कृष्ण-भक्ति दीजिये।" संन्यासी ने सरलता से कहा, "आप तो स्वयं कृष्णरूप हैं। पहुंचे हुए पंडित हैं। आपको कोई क्या दीक्षा देगा!"

निमाई के बहुत जोर देने पर पुरी स्वामी ने उन्हें दीक्षा दे दी। ज्यों ही निमाई के कान में मंत्र फूंका गया, वह बेहोश हो गए और उसी हालत में चिल्लाने लगे, "अरे प्यारे कृष्ण, तुम कहां हो? मुझे भी अपने पास बुला लो।" होश आने पर अपने साथियों से बोले, "भैया, तुम घर लौट जाओ। हम तो अब कृष्ण के पास वृन्दवन जाते हैं।"

पर पुरी स्वामी ने उन्हें समझाकर कहा, "वृन्दावन बाद में जाना। पहले नवद्वीप में कृष्ण-भक्ति की गंगा बहाओ। बुराइयों में अपने यहां के लोगों का उद्धार करो।"

गुरु की आज्ञा से निमाई नवद्वीप लौट आये। बंगाल का यह इलाका उन दिनों गौड़ देश के नाम के नाम से प्रसिद्ध था। वहां पर मुसलमान बादशाह का राज्य था। राज्य की ओर से हर बड़े नगर में काजी की अदालत थी।

गया से लौटने के बाद निमाई का मन पाठशाला में न लगा। वह हर समय कीर्त्तन में लीन रहने लगे। व्याकरण पढ़ाते-पढ़ाते श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने लगते, फिर कृष्ण-वियोग में फूट-फूटकर रोने लगते।

धीरे-धीरे पाठशाला का अन्त हो गया। निमाई के कारण नवद्वीप के वैष्णवों में एक नई लहर आ गई। जोरों का कीर्त्तन होता। निमाई कीर्त्तन करते-करते नाचने लग जाते। उनके साथ-साथ और भी भक्त नाचने लगते।

भक्तों की संख्या बढ़ने लगी। बिना जात-पांत के भेद के सब लोग उनके कीर्त्तन में शामिल होते थे। लोग उनको भगवान कृष्ण का अवतार मानने लगे।

बंगाल में उन दिनों कालीपूजा का बहुत प्रचार था। कालीपूजा में बहुत-से पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। निमाई पंडित इन बुरी बातों के विरोध में ही कृष्ण-भक्ति का संदेश लेकर हुए थे।

निभाई के विरोधी उन्हें नीचा दिखाने के उपाय सोचते रहते थे। एक बार उन्होंने काजी से शिकायत की कि उनके कीर्त्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर राज को सोने नहीं देते और कीर्त्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर रात को सोने नहीं देते और कीर्त्तन के बहाने बुरे-बुरे काम करते हैं। साथ ही उन्होंने मुसलमानों को कृष्ण बना लिया है।

यह सुनते ही काजी जलभुन गया। उसने फौरन आज्ञा दी कि कहीं भी कीर्त्तन नहीं होगा।

भक्तों ने आकर जब काजी की यह आज्ञा सुनाई ते निमाई पंडित मुस्काराते हुए बोल, "घबराते क्यों हो? नगर में ढिंढोरा पिटवा दी कि मैं आज शहर के बाजारों में कीर्त्तन करता हुआ काजी के मकान के सामने जाऊंगा और वहां कीर्त्तन करूंगा। काजी साहब के उद्धार का समय आ गया है।"

इस मुनादी को सुनकर लोगों की खुशी की कोई सीमा न रही। लोगों ने नगर के बाजार सजाये। दूसरे मत को माननेवाले लोगों ने भी मकानों को सजाया।

निमाई पंडित अपने भक्तों के साथ कीर्त्तन करते चले।"हरिबोल! हरिबोल!" की ध्वनि से आकाश गूंज उठा। जलूस कीर्त्तन करता हुआ बाजारों से गुजरने लगा। निमाई प्रभु-भक्ति में लीन होकर नृत्य कर रहे थे। उनकी आंखों से कृष्ण-विरह में आंसू बह रहे थे। उन्हें देखकर विरोध करनेवालों के भी हृदय उनके चरणों में झूके हा रहे थे। जनता में काजी की आज्ञा के खिलाफ जोश पैदा होने लगा। जनता चिल्लाने लगी, "काजी का मकान जला दो, काजी को मार दो।" लोग गुस्से में भरे हुए काजी के मकान की ओर बढ़ने लगे।

निमाई पंडित कीर्त्तन में मस्त थे। जब भक्तों ने उन्हें लोगों के जोश की बात बतलाई तो उन्होंने कीर्त्तन बन्द कर दिया और गुस्से से भरी हुई जनता के सामने जाकर बोले, "काजी का बुरा करनेवाला मेरा बुरा करेगा। मैं काजी को प्रेम से जीतना चाहता हूं, डर दिखाकर नहीं। इसलिए आप मेरे काम में रुकावट न डालें।

काजी डर के मारे अपने घर में छिपकर बैठ गया था। निमाई ने उसके नौकरों से कहा, "काजीसाहब को मेरे आने की खबर दो। उनसे कहो कि डर की कोई बात नहीं। वह मुझ पर यकीन करें। मेरे होते हुए उनका बाल भी बांका न होगा।" गांव के नाते काजी निमाई के मामा लगते थे। नौकरों के समझाने-बुझाने पर काजी बाहर आये।

निमाई पंडित ने प्यार से कहा, "मामाजी, भानजा मिलने आये और मामा मकान के द्वार बन्द करके अन्दर जा बैठे, यह भी कोई बात हुई!"

काजी ने कहा, "मैं डर से नहीं, शर्म के मारे अन्दर जा बैठा था।

मैं अपनी मदद के लिए सेना बुला सकता था, पर जब मैंने अपनी आंखों तुम्हारा कीर्त्तन देखा तो मैं खुद पागल हुआ जा रहा था। तुम तो नारायण रूप हो। तुम्हारे कीर्त्तन में रुकावट डालने का मुझे दु:ख हैं। मैं लोगों के बहकावे में आ गया था। अब तुम खूब कीर्त्तन करो, तुम्हें कोई नहीं रोकेगा।"

इस घटना से निमाई पंडित के हृदय में एक बड़ा परिवर्तन आने लगा। संन्यास लेने की इच्छा पैदा होने लगी। वह सोचते थे कि मेरे यश और वेश से डाह करनेवालों को सीधे रास्ते पर लाने का केवल एक ही उपाय है और वह है त्याग। त्याग करके ही मैं दुनिया की भलाई में लग सकता हूं। यह इच्छा जब उन्होंने भक्तों, अपनी माता और पत्नी के बताई तो सब रोने लगे। सबने उन्हें समझाने की कोशिश की, पर बेकार। निमाई पंडित चट्टान की तरह अटल थे।

बाद में सबने उनकी बात मान ली। एक रात को माता और पत्नी को सोता छोड़ वह संन्यास लेने के लिए घर से निकल पड़े। घर से निकलकर वह केशव भारती की कुटी पर पहुंचे और उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की। उस समय निमाई की उम्र चौबीस साल की थी।

केशव भारती ने उन्हें बहुत समझाया। कहा, "अभी तुम्हारी उम्र छोटी है। तुम्हारे कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। इस हालत में तुम्हारे लिए संन्यास लेना ठीक नहीं होगा। जाओ, घर लौट जाओ।" निमाई ने हाथ जोड़कर कहा, "गुरुदेव, घर में रहते हुए मैं वह काम नहीं कर सकता, जो करना चाहता हूं। देश में नास्तिकता, हिंसा और वाम-मार्ग के कारण बड़ी बुरी-बुरी बातें फैल रही है। मैं अज्ञान के अंधेरे को दूर करना चाहता हूं। घूम-घूमकर कृष्णभक्ति का सन्देश सारे देश को सुनाना चाहता हूं। जात-पांत के बंधनों से लोगों को निकालना चाहता हूं। आप मुझ पर दया करें, मुझे दीक्षा दें।"

केशव भारती कुछ सोचते हुए बोले, "अच्छा, निमाई पंडित, एक शर्त पर मैं तुम्हें दीक्षा दे सकता हूं। तुम अपनी माता और पत्नी से आज्ञा ले आओ।"

निमाई ने कहा, "गुरूदेव उन दोनों ने मुझे आज्ञा दे दी है। मैं उनसे पहले ही पूछ चुका हूं।"

निमाई के बहुत कहने पर केशव भारती उन्हें दीक्षा देने को तैयार हो गए। इतने में निमाई को ढ़ूंढ़ते हुए नवद्वीप के अनेक भक्त वहां आ पहुंचे। वह बड़ा ही दिल को हिला देनेवाला दृश्य था। यह सुनकर कि एक युवक पत्नी और मां को छोड़कर संन्यासी बन रह है, आसपास के गांव के नर-नारी इकट्ठे हो गये। वे उन्हें मना करते और केशव भारती को गालियां देते। कोई भी नाई निमाई पंडित के सुन्दर बाल काटने को तैयार न होता।

तब निमाई ने अपनी मधुर वाणी से सबको शान्त कियां नाई ने उनके केश काठे। पर उसने कसम खा ली कि आगे से वह यह काम नहीं करेगा। वह कृष्ण-भक्त हो गया। निमाई पंडित अब चैतन्य कहलाने लगे।

कृष्ण-भक्ति के गीत गाते हुए वह जनता के हृदय में भगवत् भक्ति की भावना भरने लगे। उन दिनों अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग राजाओं के राज्य थे; किन्तु चैतन्यप्रभु इतने मशहूर थे कि उन्हें कहीं भी जाने की रोक-टोक न थी।

एक यात्रा में उन्हें पता चला कि उनके बड़े भाई विश्वरूप दो वर्ष साधु रहकर मर गये।

साधु बनने के बाद दो बार चैतन्य अपनी माता से मिले। वैसे माता के समाचार वह समय-समय पर अपने भक्तों से पूछते रहते थे।

एक बार जब वह नवद्वीप गये, तो विष्णुप्रिया उनसे मिली। चैतन्य बोले, "देवी, इस संन्यासी के लिए बया आज्ञा है?" विष्णुप्रिया ने सिर झुकाकर कहा, "महाराज, मुझे आपके खड़ाऊं चाहिए।" चैतन्यप्रभु ने खड़ाऊं दे दिया। बाद में  विष्णुप्रिया ने कृष्ण-भक्ति की दीक्षा ले ली।

एक बार चैतन्यप्रभु अकेले ही चेरानन्दी वन में जा रहे थे। उस वन में मशहूर डाकू नौरोजी रहता था। उसका नाम सुनकर लोग कांप उठते थे। चैतन्य को इस वन में से जाने के लिए लोगों ने बहुत मना किया, पर उनके मन में नौरोजी को सही रास्ते पर लाने की धुन समाई हुई थी।

नौरोजी उनको देखते ही उनका भक्त हो गया और वह संन्यासी बनकर महाप्रभु के साथ रहने लगा। चैतन्यप्रभु अधिकतर जगन्नाथपुरी में रहते थे और जगन्नाथजी की मूर्ति के आगे खड़े होकर घंटों रोया करते थे।

४८ वर्ष की उम्र में रथ-यात्रा के दिन उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। उनका शरीर चला गया, पर उनका नाम सदा अमर रहेगा। भक्ति की उन्होंने जो धारा बहाई, वह कभी नहीं सूखेगी और लोगों को हमेशा पवित्र करती रहेगी।

Legend of Saints of India series part 5 - Sant Tulsidas


जन्म काल
महान कवि तुलसीदास की प्रतिभा-किरणों से न केवल हिन्दू समाज और भारत, बल्कि समस्त संसार आलोकित हो रहा है । बड़ा अफसोस है कि उसी कवि का जन्म-काल विवादों के अंधकार में पड़ा हुआ है। अब तक प्राप्त शोध-निष्कर्ष भी हमें निश्चितता प्रदान करने में असमर्थ दिखाई देते हैं। मूलगोसाईं-चरित के तथ्यों के आधार पर डा० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल और श्यामसुंदर दास तथा किसी जनश्रुति के आधार पर "मानसमयंक' - कार भी १५५४ का ही समर्थन करते हैं। इसके पक्ष में मूल गोसाईं-चरित की निम्नांकित पंक्तियों का विशेष उल्लेख किया जाता है।
पंद्रह सै चौवन विषै, कालिंदी के तीर,
सावन सुक्ला सत्तमी, तुलसी धरेउ शरीर ।

तुलसीदास की जन्मभूमि
तुलसीदास की जन्मभूमि होने का गौरव पाने के लिए अब तक राजापुर (बांदा), सोरों (एटा), हाजीपुर (चित्रकूट के निकट), तथा तारी की ओर से प्रयास किए गए हैं। संत तुलसी साहिब के आत्मोल्लेखों, राजापुर के सरयूपारीण ब्राह्मणों को प्राप्त "मुआफी' आदि बहिर्साक्ष्यों और अयोध्याकांड (मानस) के तायस प्रसंग, भगवान राम के वन गमन के क्रम में यमुना नदी से आगे बढ़ने पर व्यक्त कवि का भावावेश आदि अंतर्साक्ष्यों तथा तुलसी-साहित्य की भाषिक वृत्तियों के आधार पर रामबहोरे शुक्ल राजापुर को तुलसी की जन्मभूमि होना प्रमाणित हुआ है।
रामनरेश त्रिपाठी का निष्कर्ष है कि तुलसीदास का जन्म स्थान सोरों ही है। सोरों में तुलसीदास के स्थान का अवशेष, तुलसीदास के भाई नंददास के उत्तराधिकारी नरसिंह जी का मंदिर और वहां उनके उत्तराधिकारियों की विद्यमानता से त्रिपाठी और गुप्त जी के मत को परिपुष्ट करते हैं।

जाति एवं वंश
जाति और वंश के सम्बन्ध में तुलसीदास ने कुछ स्पष्ट नहीं लिखा है। कवितावली एवं विनयपत्रिका में कुछ पंक्तियां मिलती हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि वे ब्राह्मण कुलोत्पन्न थे-
दियो सुकुल जनम सरीर सुदर हेतु जो फल चारि को
जो पाइ पंडित परम पद पावत पुरारि मुरारि को ।
(विनयपत्रिका)
भागीरथी जलपान करौं अरु नाम द्वेै राम के लेत नितै हों ।
मोको न लेनो न देनो कछु कलि भूलि न रावरी और चितैहौ ।।
जानि के जोर करौं परिनाम तुम्हैं पछितैहौं पै मैं न भितैहैं
बाह्मण ज्यों उंगिल्यो उरगारि हौं त्यों ही तिहारे हिए न हितै हौं।
जाति-पांति का प्रश्न उठने पर वह चिढ़ गये हैं। कवितावली की निम्नांकित पंक्तियों में उनके अंतर का आक्रोश व्यक्त हुआ है -
"धूत कहौ अवधूत कहौ रजपूत कहौ जोलहा कहौ कोऊ काहू की बेटी सों बेटा न व्याहब,
काहू की जाति बिगारी न सोऊ।"
""मेरे जाति-पांति न चहौं काहू का जाति-पांति,
मेरे कोऊ काम को न मैं काहू के काम को ।"
राजापुर से प्राप्त तथ्यों के अनुसार भी वे सरयूपारीण थे। तुलसी साहिब के आत्मोल्लेख एवं मिश्र बंधुओं के अनुसार वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। जबकि सोरों से प्राप्त तथ्य उन्हें सना ब्राह्मण प्रमाणित करते है, लेकिन "दियो सुकुल जनम सरीर सुंदर हेतु जो फल चारि को' के आधार पर उन्हें शुक्ल ब्राह्मण कहा जाता है। परंतु शिवसिंह "सरोज' के अनुसार सरबरिया ब्राह्मण थे।
ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होने के कारण कवि ने अपने विषय में "जायो कुल मंगन' लिखा है। तुलसीदास का जन्म अर्थहीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जिसके पास जीविका का कोई ठोस आधार और साधन नहीं था। माता-पिता की स्नेहिल छाया भी सर पर से उठ जाने के बाद भिक्षाटन के लिए उन्हें विवश होना पड़ा।

माता-पिता
तुलसीदास के माता पिता के संबंध में कोई ठोस जानकारी नहीं है। प्राप्त सामग्रियों और प्रमाणों के अनुसार उनके पिता का नाम आत्माराम दूबे था। किन्तु भविष्यपुराण में उनके पिता का नाम श्रीधर बताया गया है। रहीम के दोहे के आधार पर माता का नाम हुलसी बताया जाता है।
सुरतिय नरतिय नागतिय, सब चाहत अस होय ।
गोद लिए हुलसी फिरैं, तुलसी सों सुत होय ।।

गुरु
तुलसीदास के गुरु के रुप में कई व्यक्तियों के नाम लिए जाते हैं। भविष्यपुराण के अनुसार राघवानंद, विलसन के अनुसार जगन्नाथ दास, सोरों से प्राप्त तथ्यों के अनुसार नरसिंह चौधरी तथा ग्रियर्सन एवं अंतर्साक्ष्य के अनुसार नरहरि तुलसीदास के गुरु थे। राघवनंद के एवं जगन्नाथ दास गुरु होने की असंभवता सिद्ध हो चुकी है। वैष्णव संप्रदाय की किसी उपलब्ध सूची के आधार पर ग्रियर्सन द्वारा दी गई सूची में, जिसका उल्लेख राघवनंद तुलसीदास से आठ पीढ़ी पहले ही पड़ते हैं। ऐसी परिस्थिति में राघवानंद को तुलसीदास का गुरु नहीं माना जा सकता।
सोरों से प्राप्त सामग्रियों के अनुसार नरसिंह चौधरी तुलसीदास के गुरु थे। सोरों में नरसिंह जी के मंदिर तथा उनके वंशजों की विद्यमानता से यह पक्ष संपुष्ट हैं। लेकिन महात्मा बेनी माधव दास के "मूल गोसाईं-चरित' के अनुसार हमारे कवि के गुरु का नाम नरहरि है।
 
बाल्यकाल और आर्थिक स्थिति
तुलसीदास के जीवन पर प्रकाश डालने वाले बहिर्साक्ष्यों से उनके माता-पिता की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर प्रकाश नहीं पड़ता। केवल "मूल गोसाईं-चरित' की एक घटना से उनकी चिंत्य आर्थिक स्थिति पर क्षीण प्रकाश पड़ता है। उनका यज्ञोपवीत कुछ ब्राह्मणों ने सरयू के तट पर कर दिया था। उस उल्लेख से यह प्रतीत होता है कि किसी सामाजिक और जातीय विवशता या कर्तव्य-बोध से प्रेरित होकर बालक तुलसी का उपनयन जाति वालों ने कर दिया था।
तुलसीदास का बाल्यकाल घोर अर्थ-दारिद्रय में बीता। भिक्षोपजीवी परिवार में उत्पन्न होने के कारण बालक तुलसीदास को भी वही साधन अंगीकृत करना पड़ा। कठिन अर्थ-संकट से गुजरते हुए परिवार में नये सदस्यों का आगमन हर्षजनक नहीं माना गया -
जायो कुल मंगन बधावनो बजायो सुनि,
भयो परिताप पाय जननी जनक को ।
बारें ते ललात बिललात द्वार-द्वार दीन,
जानत हौं चारि फल चारि ही चनक को ।
(कवितावली)
मातु पिता जग जाय तज्यो विधि हू न लिखी कछु भाल भलाई ।
नीच निरादर भाजन कादर कूकर टूकनि लागि ललाई ।
राम सुभाउ सुन्यो तुलसी प्रभु, सो कह्यो बारक पेट खलाई ।
स्वारथ को परमारथ को रघुनाथ सो साहब खोरि न लाई ।।
होश संभालने के पुर्व ही जिसके सर पर से माता - पिता के वात्सल्य और संरक्षण की छाया सदा -सर्वदा के लिए हट गयी, होश संभालते ही जिसे एक मुट्ठी अन्न के लिए द्वार-द्वार विललाने को बाध्य होना पड़ा, संकट-काल उपस्थित देखकर जिसके स्वजन-परिजन दर किनार हो गए, चार मुट्ठी चने भी जिसके लिए जीवन के चरम प्राप्य (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) बन गए, वह कैसे समझे कि विधाता ने उसके भाल में भी भलाई के कुछ शब्द लिखे हैं। उक्त पदों में व्यंजित वेदना का सही अनुभव तो उसे ही हो सकता है, जिसे उस दारुण परिस्थिति से गुजरना पड़ा हो। ऐसा ही एक पद विनयपत्रिका में भी मिलता है -
द्वार-द्वार दीनता कही काढि रद परिपा हूं
हे दयालु, दुनी दस दिसा दुख-दोस-दलन-छम कियो संभाषन का हूं।
तनु जन्यो कुटिल कोट ज्यों तज्यों मातु-पिता हूं।
काहे को रोष-दोष काहि धौं मेरे ही अभाग मो सी सकुचत छुइ सब छाहूं
(विनयपत्रिका, २७५)

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दोहावली
तुलसीदास कृत 'दोहावली' मुक्तक रचना है। इसमें 573 छंद हैं जिनमें 23 सोरठे व शेष दोहे संगृहित हैं।
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तुलसी की चौपाइयां
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनूरूप।।
जथा अनेक वेष धरि नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव दिखावअइ आपनु होइ न सोइ ।।

तुलसीदास की मान्यता है कि निर्गुण ब्रह्म राम भक्त के प्रेम के कारण मनुष्य शरीर धारण कर लौकिक पुरुष के अनूरूप विभिन्न भावों का प्रदर्शन करते हैं। नाटक में एक नट अर्थात् अभिनेता अनेक पात्रों का अभिनय करते हुए उनके अनुरूप वेषभूषा पहन लेता है तथा अनेक पात्रों अर्थात् चरितों का अभिनय करता है। जिस प्रकार वह नट नाटक में अनेक पात्रों के अनुरूप वेष धारण करने तथा उनका अभिनय करने से वे पात्र नहीं हो जाता, नट ही रहता है उसी प्रकार रामचरितमानस में भगवान राम ने लौकिक मनुष्य के अनुरूप जो विविध लीलाएँ की हैं उससे भगवान राम तत्वत: वही नहीं हो जाते ,राम तत्वत: निर्गुण ब्रह्म ही हैं। तुलसीदास ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है कि उनकी इस लीला के रहस्य को बुदि्धहीन लोग नहीं समझ पाते तथा मोहमुग्ध होकर लीला रूप को ही वास्तविक समझ लेते हैं। आवश्यकता तुलसीदास के अनुरूप राम के वास्तविक एवं तात्त्विक रूप को आत्मसात् करने की है ।

Legend Of Saints Of India Series Part 4 - Ras khan

रसखान (जन्म: १५४८ ई) कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि थे। हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीनरीतिमुक्त कवियों में रसखान का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। रसखान को 'रस की खान' कहा गया है। इनके काव्य में भक्तिशृंगार रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और उनके सगुण और निर्गुण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रद्धावनत हैं। रसखान के सगुण कृष्ण वे सारी लीलाएं करते हैं, जो कृष्ण लीला में प्रचलित रही हैं। यथा- बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधि में इन असीमित लीलाओं को बखूबी बाँधा है। मथुरा जिले में महाबन में इनकी समाधि हैं|

महाकवि रसखान की महाबन (जिला मथुरा) में स्थित समाधि

समाधि
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए" उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है। बोधा और आलम भी इसी परम्परा में आते हैं। सय्यद इब्राहीम "रसखान" का जन्म अन्तर्जाल पर उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् १५३३ से १५५८ के बीच कभी हुआ था। कई विद्वानों के अनुसार इनका जन्म सन् १५९० ई. में हुआ था। चूँकि अकबर का राज्यकाल १५५६-१६०५ है, ये लगभग अकबर के समकालीन हैं। इनका जन्म स्थान पिहानी जो कुछ लोगों के मतानुसार दिल्ली के समीप है। कुछ और लोगों के मतानुसार यह पिहानी उत्तरप्रदेश के हरदोई जिले में है। मृत्यु के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाई। यह भी बताया जाता है कि रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी और हिंदी में किया है ।

परिचय[संपादित करें]

रसखान के जन्म के सम्बंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। अनेक विद्वानों इनका जन्म संवत् 1615 ई. माना है और कुछ ने 1630 ई. माना है। रसखान के अनुसार गदर के कारण दिल्ली श्मशान बन चुकी थी, तब दिल्ली छोड़कर वह ब्रज (मथुरा) चले गए। ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर पता चलता है कि उपर्युक्त गदर सन् 1613 ई. में हुआ था। उनकी बात से ऐसा प्रतीत होता है कि वह उस समय वयस्क हो चुके थे।
रसखान का जन्म संवत् 1590 ई. मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। भवानी शंकर याज्ञिक का भी यही मानना है। अनेक तथ्यों के आधार पर उन्होंने अपने मत की पुष्टि भी की है। ऐतिहासिक ग्रंथों के आधार पर भी यही तथ्य सामने आता है। यह मानना अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता है कि रसखान का जन्म सन् 1590 ई. में हुआ था।
रसखान के जन्म स्थान के विषय में भी कई मतभेद है। कई विद्वान उनका जन्म स्थल पिहानी अथवा दिल्ली को मानते है। शिवसिंह सरोज तथा हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर रसखान का जन्म स्थान पिहानी जिला हरदोई माना जाए।
रसखान अर्थात् रस के खान, परंतु उनका असली नाम सैयद इब्राहिम था और उन्होंने अपना नाम केवल इस कारण रखा ताकि वे इसका प्रयोग अपनी रचनाओं पर कर सकें।

काव्य रचना[संपादित करें]

रसखान एक महान कवि थे। उनकी अधिकांश रचनायें भगवान कृष्ण को समर्पित हैं। निम्नलिखित सवैया में रसखान ने अगले जन्म के लिये ब्रज के आसपास उत्पन्न होने की कामना की है-
मानुष हों तो वही रसखान, बसौं नित गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तौ कहा बसु मेरौ, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।।
पाहन हौं तौ वही गिरि कौ जुधर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरौं नित, कालिंदी-कूल कदंब की डारन।।

Friday 11 August 2017

Nebulae : What are they???

NEBULAE: WHAT ARE THEY AND WHERE DO THEY COME FROM?

A nebula is a truly wondrous thing to behold. Named after the Latin word for “cloud”, nebulae are not only massive clouds of dust, hydrogen and helium gas, and plasma; they are also often “stellar nurseries” – i.e. the place where stars are born. And for centuries, distant galaxies were often mistaken for these massive clouds.
Alas, such descriptions barely scratch the surface of what nebulae are and what there significance is. Between their formation process, their role in stellar and planetary formation, and their diversity, nebulae have provided humanity with endless intrigue and discovery.
For some time now, scientists and astronomers have been aware that outer space is not really a total vacuum. In fact, it is made up of gas and dust particles known collectively as the Interstellar Medium (ISM). Approximately 99% of the ISM is composed of gas, while about 75% of its mass takes the form of hydrogen and the remaining 25% as helium.
The interstellar gas consists partly of neutral atoms and molecules, as well as charged particles (aka. plasma), such as ions and electrons. This gas is extremely dilute, with an average density of about 1 atom per cubic centimeter. In contrast, Earth’s atmosphere has a density of approximately 30 quintillion molecules per cubic centimeter (3.0 x 1019 per cm³) at sea level.
Even though the interstellar gas is very dispersed, the amount of matter adds up over the vast distances between the stars. And eventually, and with enough gravitational attraction between clouds, this matter can coalesce and collapse to forms stars and planetary systems.

Nebula Formation:

In essence, a nebula is formed when portions of the interstellar medium undergo gravitational collapse. Mutual gravitational attraction causes matter to clump together, forming regions of greater and greater density. From this, stars may form in the center of the collapsing material, who’s ultraviolet ionizing radiation causes the surrounding gas to become visible at optical wavelengths.
Most nebulae are vast in size, measuring up to hundreds of light years in diameter. Although denser than the space surrounding them, most nebulae are far less dense than any vacuum created in an Earthen environment. In fact, a nebular cloud that was similar in size to Earth would only so much material that its mass would be only a few kilograms.

Nebula Classification:

Stellar objects that can be called Nebula come in four major classes. Most fall into the category of Diffuse Nebulae, which means they have no well-defined boundaries. These can be subdivided into two further categories based on their behavior with visible light – “Emission Nebulae” and “Reflection Nebulae”.
Emission Nebulae are those that emit spectral line radiation from ionized gas, and are often called HII regions because they are largely composed of ionized hydrogen. In contrast, Reflection Nebulae do not emit significant amounts of visible light, but are still luminous because they reflect the light from nearby stars.
There are also what is known as Dark Nebulae, opaque clouds that do not emit visible radiation and are not illuminated by stars, but block light from luminous objects behind them. Much like Emission and Reflection Nebulae, Dark Nebulae are sources of infrared emissions, chiefly due to the presence of dust within them.
Some nebulae are formed as the result of supernova explosions, and are hence classified as a Supernova Remnant Nebulae. In this case, short-lived stars experience implosion in their cores and blow off their external layers. This explosion leaves behind a “remnant” in the form of a compact object – i.e. a neutron star – and a cloud of gas and dust that is ionized by the energy of the explosion.
Other nebulae may form as Planetary Nebulae, which involves a low-mass star entering the final stage of its life. In this scenario, stars enter their Red Giant phase, slowly losing their outer layers due to helium flashes in their interior. When the star has lost enough material, its temperature increases and the UV radiation it emits ionizes the surrounding material it has thrown off.
This class also contains the subclass known as Protoplanetary Nebulae (PPN), which applies to astronomical objects that are experiencing a short-lived episode in a star’s evolution. This is the rapid phase that takes place between the Late Asymptotic Giant Branch (LAGB) and the following Planetary Nebula (PN) phase.
Four different planetary nebulae. Credit: NASA/Chandra Observatory
Four different planetary nebulae. Credit: NASA/Chandra Observatory
During the Asymptotic Giant Branch (AGB) phase, the star undergoes mass loss, emitting a circumstellar shell of hydrogen gas. When this phase comes to an end, the star enters the PPN phase, where it is energized by a central star, causing it to emit strong infrared radiation and become a reflection nebula. The PPN phase continues until the central star reaches a temperature of 30,000 K, after which it is hot enough to ionize the surrounding gas.

History of Nebula Observation:

Many nebulous objects were noticed in the night sky by astronomers during Classical Antiquity and the Middle Ages. The first recorded observation took place in 150 CE, when Ptolemy noted the presence of five stars in Almagast that appeared nebulous in his book. He also noted a region of luminosity between the constellations Ursa Major and Leo that was not associated with any observable star.
In his Book of Fixed Stars, written in 964 CE, Persian astronomer Abd al-Rahman al-Sufi made the first observation of an actual nebula. According to al-Sufi’s observations, “a little cloud” was apparent in a portion of the night sky where the Andromeda Galaxy is now known to be located. He also cataloged other nebulous objects, such as the Omicron Velorum and Brocchi’s Cluster.
On July 4th, 1054, the supernova that created the Crab Nebula (SN 1054,) was visible to astronomers on Earth, and recorded observations that were made by both Arabic and Chinese astronomers have been identified. While anecdotal evidence exists that other civilizations viewed the supernova, no records have been uncovered.
By the 17th century, improvements in telescopes led to the first confirmed observations of nebulae. This began in 1610, when French astronomer Nicolas-Claude Fabri de Peiresc made the first recorded observation of the Orion Nebula. In 1618, Swiss astronomer Johann Baptist Cysat also observed the nebula; and by 1659, Christiaan Huygens made the first detailed study of it.
By the 18th century, the number of observed nebulae began to increase and astronomers began to compile lists. In 1715, Edmund Halley published a list of six nebulae – M11M13M22M31M42, and the Omega Centauriglobular cluster (NGC 5139) – in his “An account of several nebulae or lucid spots like clouds, lately discovered among the fixt stars by help of the telescope.”
In 1746, French astronomer Jean-Philippe de Cheseaux compiled a list of 20 nebulae, included eight that were not previously known. Between 1751 and 53, Nicolas Louis de Lacaille cataloged 42 nebulae from the Cape of Good Hope, most of which were previously unknown. And in 1781, Charles Messier compiled his catalog of 103 “nebulae” (now called Messier objects), though some were galaxies and comets.
The number of observed and cataloged nebulae greatly expanded thanks to the efforts of William Herschel and his sister, Caroline. In 1786, the two published their Catalogue of One Thousand New Nebulae and Clusters of Stars, which was followed up in 1786 and 1802 by a second and third catalog. At the time, Herschel believed that these nebulae were merely unresolved clusters of stars, a belief he would amend in 1790 when he observed a true nebula surrounding a distant star.